संधिआ ​​वेले का हुक्मनामा – 27 सितंबर 2025

अंग : 732
सूही महला ४ ॥ हरि हरि करहि नित कपटु कमावहि हिरदा सुधु न होई ॥ अनदिनु करम करहि बहुतेरे सुपनै सुखु न होई ॥१॥ गिआनी गुर बिनु भगति न होई ॥ कोरै रंगु कदे न चड़ै जे लोचै सभु कोई ॥१॥ रहाउ॥ जपु तप संजम वरत करे पूजा मनमुख रोगु न जाई ॥ अंतरि रोगु महा अभिमाना दूजै भाइ खुआई ॥२॥ बाहरि भेख बहुतु चतुराई मनूआ दह दिसि धावै ॥ हउमै बिआपिआ सबदु न चीन्है फिरि फिरि जूनी आवै ॥३॥ नानक नदरि करे सो बूझै सो जनु नामु धिआए ॥ गुर परसादी एको बूझै एकसु माहि समाए ॥४॥४॥
अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरु की शरण में नहीं आते वैसे) ज़ुबानी-ज़ुबानी राम-राम उचारते रहते हैं, सदा धोखा-फरेब (भी) करते रहते हैं, उनका दिल पवित्र नहीं हो सकता। वह मनुष्य (तीर्थ स्नान आदि निहित) अनेक धार्मिक कर्म हर वक्त करते रहते हैं, पर उन्हें कभी सपने में भी आत्मिक आनंद नहीं मिलता।1। हे ज्ञानवान! गुरु की शरण पड़े बिना भक्ति नहीं हो सकती (मन पर प्रभु की भक्ति का रंग नहीं चढ़ सकता, जैसे) चाहे हरेक मनुष्य तरले करता फिरे, कभी कोरे कपड़े पर रंग नहीं चढ़ता।1। रहाउ। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (मंत्रों का) जाप (धूनियों का) तपाना (आदिक) कष्ट देने वाले साधन करता है, ब्रत रखता है, पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का (आत्मिक) रोग दूर नहीं होता। उसके मन में अहंकार का बड़ा रोग टिका रहता है। वह माया के मोह में फंस के गलत राह पर पड़ा रहता है।2। हे भाई! (गुरु से टूटा हुआ मनुष्य) लोगों को दिखाने के लिए धार्मिक भेस बनाता है, बहुत सारी चुस्ती-चालाकी दिखाता है, पर उसका अनुचित मन दसों दिशाओं में दौड़ता फिरता है। अहंकार-घमंड में फसा हुआ वह मनुष्य गुरु के शब्द से सांझ नहीं डालता, वह बार-बार जूनियों के चक्कर में पड़ा रहता है।3। हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वह (आत्मिक जीवन के रास्ते को) समझ लेता है, वह मनुष्य (सदा) परमात्मा का नाम स्मरण करता है, गुरु की कृपा से वह एक परमात्मा के साथ ही सांझ बनाए रखता है, वह एक परमात्मा में ही लीन रहता है।4।4।


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