अंग : 637
सोरठि महला ३ घरु १ तितुकी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ भगता दी सदा तू रखदा हरि जीउ धुरि तू रखदा आइआ ॥ प्रहिलाद जन तुधु राखि लए हरि जीउ हरणाखसु मारि पचाइआ ॥ गुरमुखा नो परतीति है हरि जीउ मनमुख भरमि भुलाइआ ॥१॥ हरि जी एह तेरी वडिआई ॥ भगता की पैज रखु तू सुआमी भगत तेरी सरणाई ॥ रहाउ ॥ भगता नो जमु जोहि न साकै कालु न नेड़ै जाई ॥ केवल राम नामु मनि वसिआ नामे ही मुकति पाई ॥ रिधि सिधि सभ भगता चरणी लागी गुर कै सहजि सुभाई ॥२॥ मनमुखा नो परतीति न आवी अंतरि लोभ सुआउ ॥ गुरमुखि हिरदै सबदु न भेदिओ हरि नामि न लागा भाउ ॥ कूड़ कपट पाजु लहि जासी मनमुख फीका अलाउ ॥३॥ भगता विचि आपि वरतदा प्रभ जी भगती हू तू जाता ॥ माइआ मोह सभ लोक है तेरी तू एको पुरखु बिधाता ॥ हउमै मारि मनसा मनहि समाणी गुर कै सबदि पछाता ॥४॥ अचिंत कम करहि प्रभ तिन के जिन हरि का नामु पिआरा ॥ गुर परसादि सदा मनि वसिआ सभि काज सवारणहारा ॥ ओना की रीस करे सु विगुचै जिन हरि प्रभु है रखवारा ॥५॥ बिनु सतिगुर सेवे किनै न पाइआ मनमुखि भउकि मुए बिललाई ॥ आवहि जावहि ठउर न पावहि दुख महि दुखि समाई ॥ गुरमुखि होवै सु अम्रितु पीवै सहजे साचि समाई ॥६॥ बिनु सतिगुर सेवे जनमु न छोडै जे अनेक करम करै अधिकाई ॥ वेद पड़हि तै वाद वखाणहि बिनु हरि पति गवाई ॥ सचा सतिगुरु साची जिसु बाणी भजि छूटहि गुर सरणाई ॥७॥ जिन हरि मनि वसिआ से दरि साचे दरि साचै सचिआरा ॥ ओना दी सोभा जुगि जुगि होई कोइ न मेटणहारा ॥ नानक तिन कै सद बलिहारै जिन हरि राखिआ उरि धारा ॥८॥१॥
अर्थ: राग सोरठि, घर १ में गुरु अमरदास जी की तीन-तुकी बाणी। अकाल पुरख एक है और सतगुरु की कृपा द्वारा मिलता है। हे हरी! तूं अपने भगतों की इज्जत सदा रखता है, जब से जगत बना है तब से (भगतों की इज्जत) रखता आ रहा है। हे हरी! प्रहलाद भगत जैसे अनेकों सेवकों के तुने इज्जत राखी है, तुने हर्नाकश्यप को मार डाला। हे हरी! जो मनुख गुरु के सन्मुख रहते हैं उनको निश्चय होता है (की भगवान् भगतों की इज्जत बचाता है, परन्तु) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुख भटक कर कुराह पड़े रहते हैं।१। हे हरी! हे स्वामी! भगत तेरी सरन पड़े रहते हैं, तूं भगतों की इज्जत रख। हे हरी! (भगतों की इज्जत) तेरी ही इज्जत है।रहाउ। हे भाई! भगतों को मौत डरा नहीं सकती, मौत का डर भगतों के नजदीक नहीं आ सकता (क्यों-की मौत के डर की जगह) परमात्मा का नाम हर समय मन में बस्ता है, नाम की बरकत से ही वह (मौत के डर से मुक्ति पा लेते हैं। भगत गुरु के द्वारा (गुरु की सरन आ कर) आत्मिक अदोलता में प्रभु-प्रेम में (टिके रहते है, इस लिए) सब करामाती शक्तियां भगतों के चरणों में लगी रहती हैं।२। हे भाई! अपने मन के पीछै चलने वाले मनुष्यों को (परमात्मा पर) यकीन नहीं रहता, उनके अंदर लोभ-भरी गर्ज टिकी रहती है। गुरु की शरण पड़ कर भी उन (मनमुखों) के हृदय में गुरु का शब्द नहीं बसता, परमात्मा के नाम से उनका प्यार नहीं बनता। मनमुखों के बोल भी रूखे-रूखे होते हैं। पर उनके झूठ और ठगी के पाज उघड़ ही जाते हैं।३। हे प्रभु! अपने भक्तों में तू स्वयं काम करता है, तेरे भक्तों ने ही तेरे साथ गहरी सांझ डाली हुई है। पर, हे प्रभु! माया का मोह भी तेरी ही रचना है, तू खुद ही सर्व-व्यापक है, और रचनहार है, जिस मनुष्यों ने गुरु के शब्द से (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके मन का फुरना मन में ही लीन कर दिया है, उन्होंने (हे प्रभु! तेरे साथ) सांझ डाल ली।४। हे प्रभु! जिन्हें तेरा हरि-नाम प्यारा लगता है तू उनके काम कर देता है, उन्हें कोई चिन्ता-फिक्र नहीं होता। हे भाई! गुरु की कृपा से जिनके मन में परमात्मा सदा बसता रहता है, परमात्मा उनके सारे काम सँवार देता है। जिस मनुष्यों का रखवाला परमात्मा खुद बनता है, उनकी बराबरी जो भी मनुष्य करता है वह ख्वार होता है।५। हे भाई! गुरु की शरण पड़े बगैर किसी भी मनुष्य ने (परमात्मा से मिलाप का सुख) हासिल नहीं किया। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य फालतू बोल-बोल के बिलक-बिलक के आत्मिक मौत गले डाल लेते हैं। वे सदा जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं (इस चक्कर से बचने के लिए कोई) जगह वे पा नहीं सकते, (और) दुख में (जीवन व्यतीत करते हुए आखिर) दुख में ही ग़र्क हो जाते हैं। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता है, (और, इस तरह) आत्मिक अडोलता में सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन रहता है।६। हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना (मनुष्य को) जन्मों का चक्कर नहीं छोड़ता, वह चाहे अनेक ही (बनाए हुए धार्मिक) कर्म करता रहे। (पंडित लोग) वेद (आदि धर्म पुस्तकें) पढ़ते हैं, और (उनके बाबत निरी) बहसें ही करते हैं। (यकीन जानिए कि) परमात्मा के नाम के बिना उन्होंने प्रभु दर पर अपना सम्मान गवा लिया है। हे भाई! गुरु सदा स्थिर प्रभु के नाम का उपदेश करने वाला है, उसकी वाणी भी परमात्मा की महिमा वाली है। जो मनुष्य दौड़ के गुरु की शरण जा पड़ते हैं, वे (आत्मिक मौत से) बच जाते हैं।७। हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में परमात्मा आ बसता है, वे मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के दर पे सही स्वीकार हो जाते हैं। उन मनुष्यों की उपमा हरेक युग में ही होती है, कोई (निंदक आदि उनकी इस हो रही उपमा को) मिटा नहीं सकता। हे नानक! (कह:) मैं उन मनुष्यों से सदके जाता हूँ, जिन्होंने परमात्मा (के नाम) को अपने दिल में बसा के रखा है।८।१।
ਅੰਗ : 628
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਸਤਿਗੁਰ ਪੂਰੇ ਭਾਣਾ ॥ ਤਾ ਜਪਿਆ ਨਾਮੁ ਰਮਾਣਾ ॥ ਗੋਬਿੰਦ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰੀ ॥ ਪ੍ਰਭਿ ਰਾਖੀ ਪੈਜ ਹਮਾਰੀ ॥੧॥ ਹਰਿ ਕੇ ਚਰਨ ਸਦਾ ਸੁਖਦਾਈ ॥ ਜੋ ਇਛਹਿ ਸੋਈ ਫਲੁ ਪਾਵਹਿ ਬਿਰਥੀ ਆਸ ਨ ਜਾਈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੇ ਜਿਸੁ ਪ੍ਰਾਨਪਤਿ ਦਾਤਾ ਸੋਈ ਸੰਤੁ ਗੁਣ ਗਾਵੈ ॥ ਪ੍ਰੇਮ ਭਗਤਿ ਤਾ ਕਾ ਮਨੁ ਲੀਣਾ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਮਨਿ ਭਾਵੈ ॥੨॥ ਆਠ ਪਹਰ ਹਰਿ ਕਾ ਜਸੁ ਰਵਣਾ ਬਿਖੈ ਠਗਉਰੀ ਲਾਥੀ ॥ ਸੰਗਿ ਮਿਲਾਇ ਲੀਆ ਮੇਰੈ ਕਰਤੈ ਸੰਤ ਸਾਧ ਭਏ ਸਾਥੀ ॥੩॥ ਕਰੁ ਗਹਿ ਲੀਨੇ ਸਰਬਸੁ ਦੀਨੇ ਆਪਹਿ ਆਪੁ ਮਿਲਾਇਆ ॥ ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਸਰਬ ਥੋਕ ਪੂਰਨ ਪੂਰਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਪਾਇਆ ॥੪॥੧੫॥੭੯॥
ਅਰਥ: (ਹੇ ਭਾਈ!) ਜਦੋਂ ਗੁਰੂ ਨੂੰ ਚੰਗਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ ਜਦੋਂ ਗੁਰੂ ਤ੍ਰੁੱਠਦਾ ਹੈ) ਤਦੋਂ ਹੀ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਜਪਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਮੇਹਰ ਕੀਤੀ (ਗੁਰੂ ਮਿਲਾਇਆ! ਗੁਰੂ ਦੀ ਕਿਰਪਾ ਨਾਲ ਅਸਾਂ ਨਾਮ ਜਪਿਆ, ਤਾਂ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੇ ਸਾਡੀ ਲਾਜ ਰੱਖ ਲਈ (ਬਿਖੈ ਠਗਉਰੀ ਤੋਂ ਬਚਾ ਲਿਆ) ॥੧॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਚਰਨ ਸਦਾ ਸੁਖ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਹਨ। (ਜੇਹੜੇ ਮਨੁੱਖ ਹਰਿ-ਚਰਨਾਂ ਦਾ ਆਸਰਾ ਲੈਂਦੇ ਹਨ, ਉਹ) ਜੋ ਕੁਝ (ਪਰਮਾਤਮਾ ਪਾਸੋਂ) ਮੰਗਦੇ ਹਨ ਉਹੀ ਫਲ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਲੈਂਦੇ ਹਨ। (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਹੈਤਾ ਉਤੇ ਰੱਖੀ ਹੋਈ ਕੋਈ ਭੀ) ਆਸ ਖ਼ਾਲੀ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜੀਵਨ ਦਾ ਮਾਲਕ ਦਾਤਾਰ ਪ੍ਰਭੂ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਉਤੇ ਮੇਹਰ ਕਰਦਾ ਹੈ ਉਹ ਸੰਤ (ਸੁਭਾਉ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਤੇ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਦੇ ਗੀਤ ਗਾਂਦਾ ਹੈ। ਉਸ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਮਨ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਪਿਆਰ-ਭਰੀ ਭਗਤੀ ਵਿਚ ਮਸਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਮਨ ਵਿਚ ਪਿਆਰਾ ਲੱਗਣ ਲੱਗ ਪੈਂਦਾ ਹੈ ॥੨॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਅੱਠੇ ਪਹਿਰ (ਹਰ ਵੇਲੇ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਨ ਨਾਲ ਵਿਕਾਰਾਂ ਦੀ ਠਗ-ਬੂਟੀ ਦਾ ਜ਼ੋਰ ਮੁੱਕ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। (ਜਿਸ ਭੀ ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਵਿਚ ਮਨ ਜੋੜਿਆ) ਕਰਤਾਰ ਨੇ (ਉਸ ਨੂੰ) ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਮਿਲਾ ਲਿਆ, ਸੰਤ ਜਨ ਉਸ ਦੇ ਸੰਗੀ-ਸਾਥੀ ਬਣ ਗਏ ॥੩॥ (ਹੇ ਭਾਈ! ਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਪੈ ਕੇ ਜਿਸ ਭੀ ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਪ੍ਰਭੂ-ਚਰਨਾਂ ਦਾ ਆਰਾਧਨ ਕੀਤਾ) ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਉਸ ਦਾ ਹੱਥ ਫੜ ਕੇ ਉਸ ਨੂੰ ਸਭ ਕੁਝ ਬਖ਼ਸ਼ ਦਿੱਤਾ, ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਉਸ ਨੂੰ ਆਪਣਾ ਆਪ ਹੀ ਮਿਲਾ ਦਿੱਤਾ। ਨਾਨਕ ਜੀ ਆਖਦੇ ਹਨ – ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਪੂਰਾ ਗੁਰੂ ਮਿਲ ਪਿਆ, ਉਸ ਦੇ ਸਾਰੇ ਕੰਮ ਸਫਲ ਹੋ ਗਏ ॥੪॥੧੫॥੭੯॥
अंग : 628
सोरठि महला ५ ॥ सतिगुर पूरे भाणा ॥ ता जपिआ नामु रमाणा ॥ गोबिंद किरपा धारी ॥ प्रभि राखी पैज हमारी ॥१॥ हरि के चरन सदा सुखदाई ॥ जो इछहि सोई फलु पावहि बिरथी आस न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ क्रिपा करे जिसु प्रानपति दाता सोई संतु गुण गावै ॥ प्रेम भगति ता का मनु लीणा पारब्रहम मनि भावै ॥२॥ आठ पहर हरि का जसु रवणा बिखै ठगउरी लाथी ॥ संगि मिलाइ लीआ मेरै करतै संत साध भए साथी ॥३॥ करु गहि लीने सरबसु दीने आपहि आपु मिलाइआ ॥ कहु नानक सरब थोक पूरन पूरा सतिगुरु पाइआ ॥४॥१५॥७९॥
अर्थ: (हे भाई!) जब गुरू को अच्छा लगता है जब गुरू प्रसन्न होता है) तब ही परमात्मा का नाम जपा जा सकता है। परमात्मा ने मेहर की (गुरू मिलाया! गुरू की कृपा से हमने नाम जपा, तब) परमात्मा ने हमारी लाज रख ली (हमें ठगने से बचा लिया) ॥१॥ हे भाई! परमात्मा के चरण सदा सुख देने वाले हैं। (जो मनुष्य हरी-चरणों का सहारा लेते हैं, वह) जो कुछ (परमात्मा से) मांगते हैं वही फल प्राप्त कर लेते हैं। (परमात्मा के ऊपर रखी हुई कोई भी) आस व्यर्थ नहीं जाती ॥१॥ रहाउ ॥ हे भाई! जीवन का मालिक दातार प्रभू जिस मनुष्य पर मेहर करता है वह संत (स्वभाव बन जाता है, और) परमात्मा की सिफ़त-सलाह के गीत गाता है। उस मनुष्य का मन परमात्मा की प्यार-भरी भक्ति में मस्त हो जाता है, वह मनुष्य परमात्मा के मन को प्यारा लगने लग जाता है ॥२॥ हे भाई! आठों पहर (हर समय) परमात्मा की सिफ़त-सलाह करने से विकारों की ठग-बूटी का ज़ोर खत्म हो जाता है। (जिस भी मनुष्य ने परमात्मा की सिफ़त-सलाह में मन जोड़ा) करतार ने (उस को) अपने साथ मिला लिया, संत जन उस के संगी-साथी बन गए ॥३॥ (हे भाई! गुरू की श़रण पड़ कर जिस भी मनुष्य ने प्रभू-चरणों का अराधन किया) प्रभू ने उस का हाथ पकड़ कर उस को सब कुछ बख़्श़ दिया, प्रभू ने उस को अपना आप ही मिला दिया। नानक जी कहते हैं – जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल गया, उस के सभी कार्य सफल हो गए ॥४॥१५॥७९॥
ਅੰਗ : 617
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੫ ਘਰੁ ੨ ਦੁਪਦੇ ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ਸਗਲ ਬਨਸਪਤਿ ਮਹਿ ਬੈਸੰਤਰੁ ਸਗਲ ਦੂਧ ਮਹਿ ਘੀਆ ॥ ਊਚ ਨੀਚ ਮਹਿ ਜੋਤਿ ਸਮਾਣੀ ਘਟਿ ਘਟਿ ਮਾਧਉ ਜੀਆ ॥੧॥ ਸੰਤਹੁ ਘਟਿ ਘਟਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਹਿਓ ॥ ਪੂਰਨ ਪੂਰਿ ਰਹਿਓ ਸਰਬ ਮਹਿ ਜਲਿ ਥਲਿ ਰਮਈਆ ਆਹਿਓ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਗੁਣ ਨਿਧਾਨ ਨਾਨਕੁ ਜਸੁ ਗਾਵੈ ਸਤਿਗੁਰਿ ਭਰਮੁ ਚੁਕਾਇਓ ॥ ਸਰਬ ਨਿਵਾਸੀ ਸਦਾ ਅਲੇਪਾ ਸਭ ਮਹਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇਓ ॥੨॥੧॥੨੯॥
ਅਰਥ: ਰਾਗ ਸੋਰਠਿ, ਘਰ ੨ ਵਿੱਚ ਗੁਰੂ ਅਰਜਨਦੇਵ ਜੀ ਦੀ ਦੋ-ਬੰਦਾਂ ਵਾਲੀ ਬਾਣੀ। ਅਕਾਲ ਪੁਰਖ ਇੱਕ ਹੈ ਅਤੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਕਿਰਪਾ ਨਾਲ ਮਿਲਦਾ ਹੈ। ਹੇ ਭਾਈ! ਜਿਵੇਂ ਸਭ ਬੂਟਿਆਂ ਵਿਚ ਅੱਗ (ਗੁਪਤ ਮੌਜੂਦ) ਹੈ, ਜਿਵੇਂ ਹਰੇਕ ਕਿਸਮ ਦੇ ਦੁੱਧ ਵਿਚ ਘਿਉ (ਮੱਖਣ) ਗੁਪਤ ਮੌਜੂਦ ਹੈ, ਤਿਵੇਂ ਚੰਗੇ ਮੰਦੇ ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਵਿਚ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਜੋਤਿ ਸਮਾਈ ਹੋਈ ਹੈ, ਪਰਮਾਤਮਾ ਹਰੇਕ ਸਰੀਰ ਵਿਚ ਹੈ, ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਵਿਚ ਹੈ।੧। ਹੇ ਸੰਤ ਜਨੋ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਹਰੇਕ ਸਰੀਰ ਵਿਚ ਮੌਜੂਦ ਹੈ। ਉਹ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਾਰੇ ਜੀਵਾਂ ਵਿਚ ਵਿਆਪਕ ਹੈ, ਉਹ ਸੋਹਣਾ ਰਾਮ ਪਾਣੀ ਵਿਚ ਹੈ ਧਰਤੀ ਵਿਚ ਹੈ।੧।ਰਹਾਉ। ਹੇ ਭਾਈ! ਨਾਨਕ (ਉਸ) ਗੁਣਾਂ ਦੇ ਖ਼ਜ਼ਾਨੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਦਾ ਗੀਤ ਗਾਂਦਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਨੇ (ਨਾਨਕ ਦਾ) ਭੁਲੇਖਾ ਦੂਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। (ਤਾਂਹੀਏਂ ਨਾਨਕ ਨੂੰ ਯਕੀਨ ਹੈ ਕਿ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਵਿਚ ਵੱਸਦਾ ਹੈ (ਫਿਰ ਭੀ) ਸਦਾ (ਮਾਇਆ ਦੇ ਮੋਹ ਤੋਂ) ਨਿਰਲੇਪ ਹੈ, ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਵਿਚ ਸਮਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ॥੨॥੧॥੨੯॥
अंग : 617
सोरठि महला ५ घरु २ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सगल बनसपति महि बैसंतरु सगल दूध महि घीआ ॥ ऊच नीच महि जोति समाणी घटि घटि माधउ जीआ ॥१॥ संतहु घटि घटि रहिआ समाहिओ ॥ पूरन पूरि रहिओ सरब महि जलि थलि रमईआ आहिओ ॥१॥ रहाउ ॥ गुण निधान नानकु जसु गावै सतिगुरि भरमु चुकाइओ ॥ सरब निवासी सदा अलेपा सभ महि रहिआ समाइओ ॥२॥१॥२९॥
अर्थ: हे भाई! जैसे सब जड़ी बूटियों मैं अग्नि (गुप्त मौजूद) है, जैसे हरेक किसम के दूध में घी (माखन) गुप्त मौजूद है, उसी प्रकार अच्छे बुरे सब जीवों में प्रभु ज्योति समाई हुई है, परमात्मा हरेक सरीर में है, सब जीवों में है।१। हे संत जानो! परमात्मा हरेक सरीर में मौजूद है। वेह पूरी तरह सारे जीवों में वेयापक है, वेह सुंदर राम पानी में है, धरती में है।१।रहाउ। हे भाई! नानक (उस) गुणों के खजाने परमात्मा की सिफत-सलाह का गीत गाता है। गुरु ने (नानक का) भ्रम दूर कर दिया है। (तभी नानक को यकीन है कि) परमात्मा सब जीवों में बस्ता है (फिर भी) सदा (माया के मोह से) निरलेप है, सब जीवों में समा रहा है॥2॥1॥2॥
ਅੰਗ : 504
ਗੂਜਰੀ ਮਹਲਾ ੧ ॥ ਐ ਜੀ ਨਾ ਹਮ ਉਤਮ ਨੀਚ ਨ ਮਧਿਮ ਹਰਿ ਸਰਣਾਗਤਿ ਹਰਿ ਕੇ ਲੋਗ ॥ ਨਾਮ ਰਤੇ ਕੇਵਲ ਬੈਰਾਗੀ ਸੋਗ ਬਿਜੋਗ ਬਿਸਰਜਿਤ ਰੋਗ ॥੧॥ ਭਾਈ ਰੇ ਗੁਰ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਭਗਤਿ ਠਾਕੁਰ ਕੀ ॥ ਸਤਿਗੁਰ ਵਾਕਿ ਹਿਰਦੈ ਹਰਿ ਨਿਰਮਲੁ ਨਾ ਜਮ ਕਾਣਿ ਨ ਜਮ ਕੀ ਬਾਕੀ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ ਹਰਿ ਗੁਣ ਰਸਨ ਰਵਹਿ ਪ੍ਰਭ ਸੰਗੇ ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸਹਜਿ ਹਰੀ ॥ ਬਿਨੁ ਹਰਿ ਨਾਮ ਬ੍ਰਿਥਾ ਜਗਿ ਜੀਵਨੁ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਨਿਹਫਲ ਮੇਕ ਘਰੀ ॥੨॥ ਐ ਜੀ ਖੋਟੇ ਠਉਰ ਨਾਹੀ ਘਰਿ ਬਾਹਰਿ ਨਿੰਦਕ ਗਤਿ ਨਹੀ ਕਾਈ ॥ ਰੋਸੁ ਕਰੈ ਪ੍ਰਭੁ ਬਖਸ ਨ ਮੇਟੈ ਨਿਤ ਨਿਤ ਚੜੈ ਸਵਾਈ ॥੩॥ ਐ ਜੀ ਗੁਰ ਕੀ ਦਾਤਿ ਨ ਮੇਟੈ ਕੋਈ ਮੇਰੈ ਠਾਕੁਰਿ ਆਪਿ ਦਿਵਾਈ ॥ ਨਿੰਦਕ ਨਰ ਕਾਲੇ ਮੁਖ ਨਿੰਦਾ ਜਿਨ੍ਹ੍ਹ ਗੁਰ ਕੀ ਦਾਤਿ ਨ ਭਾਈ ॥੪॥ ਐ ਜੀ ਸਰਣਿ ਪਰੇ ਪ੍ਰਭੁ ਬਖਸਿ ਮਿਲਾਵੈ ਬਿਲਮ ਨ ਅਧੂਆ ਰਾਈ ॥ ਆਨਦ ਮੂਲੁ ਨਾਥੁ ਸਿਰਿ ਨਾਥਾ ਸਤਿਗੁਰੁ ਮੇਲਿ ਮਿਲਾਈ ॥੫॥ ਐ ਜੀ ਸਦਾ ਦਇਆਲੁ ਦਇਆ ਕਰਿ ਰਵਿਆ ਗੁਰਮਤਿ ਭ੍ਰਮਨਿ ਚੁਕਾਈ ॥ ਪਾਰਸੁ ਭੇਟਿ ਕੰਚਨੁ ਧਾਤੁ ਹੋਈ ਸਤਸੰਗਤਿ ਕੀ ਵਡਿਆਈ ॥੬॥ ਹਰਿ ਜਲੁ ਨਿਰਮਲੁ ਮਨੁ ਇਸਨਾਨੀ ਮਜਨੁ ਸਤਿਗੁਰੁ ਭਾਈ ॥ ਪੁਨਰਪਿ ਜਨਮੁ ਨਾਹੀ ਜਨ ਸੰਗਤਿ ਜੋਤੀ ਜੋਤਿ ਮਿਲਾਈ ॥੭॥ ਤੂੰ ਵਡ ਪੁਰਖੁ ਅਗੰਮ ਤਰੋਵਰੁ ਹਮ ਪੰਖੀ ਤੁਝ ਮਾਹੀ ॥ ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨ ਦੀਜੈ ਜੁਗਿ ਜੁਗਿ ਸਬਦਿ ਸਲਾਹੀ ॥੮॥੪॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਭਗਤੀ ਗੁਰੂ ਦੀ ਮੇਹਰ ਨਾਲ ਹੀ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਆਪਣੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਪਵਿਤ੍ਰ ਨਾਮ ਵਸਾ ਲਿਆ ਹੈ, ਉਸ ਨੂੰ ਜਮ ਦੀ ਮੁਥਾਜੀ ਨਹੀਂ ਰਹਿੰਦੀ, ਉਸ ਦੇ ਜ਼ਿੰਮੇ ਪਿਛਲੇ ਕੀਤੇ ਕਰਮਾਂ ਦਾ ਕੋਈ ਅਜੇਹਾ ਬਾਕੀ ਲੇਖਾ ਨਹੀਂ ਰਹਿ ਜਾਂਦਾ ਜਿਸ ਕਰਕੇ ਜਮਰਾਜ ਦਾ ਉਸ ਉਤੇ ਜ਼ੋਰ ਪੈ ਸਕੇ।੧।ਰਹਾਉ। ਹੇ ਭਾਈ! ਜੇਹੜੇ ਬੰਦੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਭਗਤੀ ਕਰਦੇ ਹਨ ਜੋ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸਰਨ ਆਉਂਦੇ ਹਨ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਨਾਹ ਇਹ ਮਾਣ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਅਸੀ ਸਭ ਤੋਂ ਉੱਚੀ ਜਾਂ ਵਿਚਕਾਰਲੀ ਜਾਤਿ ਦੇ ਹਾਂ, ਨਾਹ ਇਹ ਸਹਮ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਅਸੀ ਨੀਵੀਂ ਜਾਤਿ ਦੇ ਹਾਂ। ਸਿਰਫ਼ ਪ੍ਰਭੂ-ਨਾਮ ਵਿਚ ਰੰਗੇ ਰਹਿਣ ਕਰਕੇ ਉਹ (ਇਸ ਊਚਤਾ ਨੀਚਤਾ ਆਦਿਕ ਵਲੋਂ) ਨਿਰਮੋਹ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਚਿੰਤਾ, ਵਿਛੋੜਾ, ਰੋਗ ਆਦਿਕ ਉਹ ਸਭ ਭੁਲਾ ਚੁਕੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ।੧। (ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਭਗਤ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ ਟਿਕ ਕੇ ਆਪਣੀ ਜੀਭ ਨਾਲ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਗੁਣ ਗਾਂਦੇ ਹਨ (ਉਹ ਇਹੀ ਸਮਝਦੇ ਹਨ ਕਿ) ਸੁਤੇ ਹੀ (ਜਗਤ ਵਿਚ ਉਹੀ ਵਰਤਦਾ ਹੈ) ਜੋ ਉਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੂੰ ਭਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਜਗਤ ਵਿਚ ਜਿਊਣਾ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਵਿਅਰਥ ਦਿੱਸਦਾ ਹੈ, ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਭਗਤੀ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਇੱਕ ਭੀ ਘੜੀ ਨਿਸਫਲ ਜਾਪਦੀ ਹੈ।੨। ਹੇ ਭਾਈ! ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਭਗਤਾਂ ਵਾਸਤੇ ਆਪਣੇ ਮਨ ਵਿਚ ਖੋਟ ਰੱਖਦਾ ਹੈ ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਨਿੰਦਾ ਕਰਦਾ ਹੈ ਉਸ ਨੂੰ ਨਾਹ ਘਰ ਵਿਚ ਨਾਹ ਬਾਹਰ ਕਿਤੇ ਭੀ ਆਤਮਕ ਸ਼ਾਂਤੀ ਦੀ ਥਾਂ ਨਹੀਂ ਮਿਲਦੀ ਕਿਉਂਕਿ ਉਸ ਦੀ ਆਪਣੀ ਆਤਮਕ ਅਵਸਥਾ ਠੀਕ ਨਹੀਂ ਹੈ। (ਪਰਮਾਤਮਾ ਆਪਣੇ ਭਗਤਾਂ ਉਤੇ ਸਦਾ ਬਖ਼ਸ਼ਸ਼ਾਂ ਕਰਦਾ ਹੈ) ਜੇ ਨਿੰਦਕ (ਇਹ ਬਖ਼ਸ਼ਸ਼ਾਂ ਵੇਖ ਕੇ) ਖਿੱਝੇ, ਤਾਂ ਭੀ ਪਰਮਾਤਮਾ ਆਪਣੀ ਬਖ਼ਸ਼ਸ਼ ਬੰਦ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ, ਉਹ ਸਗੋਂ ਸਦਾ ਹੀ ਵਧਦੀ ਹੈ।੩। ਹੇ ਭਾਈ! ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਸਿਫ਼ਤਿ-ਸਾਲਾਹ) ਗੁਰੂ ਦੀ ਦਿੱਤੀ ਹੋਈ ਦਾਤਿ ਹੈ, ਇਸ ਨੂੰ ਕੋਈ ਮਿਟਾ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ; ਠਾਕੁਰ-ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਆਪ ਹੀ ਇਹ (ਨਾਮ ਦੀ) ਦਾਤਿ ਦਿਵਾਈ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨਿੰਦਕਾਂ ਨੂੰ (ਭਗਤ ਜਨਾਂ ਨੂੰ ਦਿੱਤੀ ਹੋਈ) ਗੁਰੂ ਦੀ ਦਾਤਿ ਪਸੰਦ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦੀ (ਤੇ ਉਹ ਭਗਤਾਂ ਦੀ ਨਿੰਦਾ ਕਰਦੇ ਹਨ) ਨਿੰਦਾ ਦੇ ਕਾਰਨ ਉਹਨਾਂ ਨਿੰਦਕਾਂ ਦੇ ਮੂੰਹ ਕਾਲੇ (ਦਿੱਸਦੇ ਹਨ)।੪। ਹੇ ਭਾਈ! ਜੇਹੜੇ ਮਨੁੱਖ (ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ) ਸਰਨ ਪੈਂਦੇ ਹਨ, ਪ੍ਰਭੂ ਮੇਹਰ ਕਰ ਕੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿਚ ਜੋੜ ਲੈਂਦਾ ਹੈ, ਰਤਾ ਭਰ ਭੀ ਢਿੱਲ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ। ਉਹ ਪ੍ਰਭੂ ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ ਦਾ ਸੋਮਾ ਹੈ, ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਨਾਥ ਹੈ, ਗੁਰੂ (ਸਰਨ ਪਏ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ) ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਮੇਲ ਵਿਚ ਮਿਲਾ ਦੇਂਦਾ ਹੈ।੫। ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਇਆ ਦਾ ਸੋਮਾ ਹੈ (ਸਭ ਜੀਵਾਂ ਉਤੇ) ਸਦਾ ਦਇਆ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਗੁਰੂ ਦੀ ਮਤਿ ਲੈ ਕੇ ਉਸ ਨੂੰ ਸਿਮਰਦਾ ਹੈ, ਪ੍ਰਭੂ ਉਸ ਦੀ ਭਟਕਣਾ ਮਿਟਾ ਦੇਂਦਾ ਹੈ,। ਜਿਵੇਂ (ਲੋਹਾ ਆਦਿਕ) ਧਾਤ ਪਾਰਸ ਨੂੰ ਛੁਹ ਕੇ ਸੋਨਾ ਬਣ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਤਿਵੇਂ ਸਾਧ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ ਭੀ ਇਹੀ ਬਰਕਤਿ ਹੈ।੬। ਪਰਮਾਤਮਾ (ਮਾਨੋ) ਪਵਿਤ੍ਰ ਜਲ ਹੈ (ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪੈਂਦਾ ਹੈ, ਉਸ ਦਾ) ਮਨ (ਇਸ ਪਵਿਤ੍ਰ ਜਲ ਵਿਚ) ਇਸ਼ਨਾਨ ਕਰਨ ਜੋਗਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਮਨ ਵਿਚ ਸਤਿਗੁਰੂ ਪਿਆਰਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ ਉਸ ਦਾ ਮਨ (ਇਸ ਪਵਿਤ੍ਰ ਜਲ ਵਿਚ) ਚੁੱਭੀ ਲਾਂਦਾ ਹੈ। ਸਾਧ ਸੰਗਤਿ ਵਿਚ ਰਹਿ ਕੇ ਉਸ ਨੂੰ ਮੁੜ ਮੁੜ ਜਨਮ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ, (ਕਿਉਂਕਿ ਗੁਰੂ) ਉਸ ਦੀ ਜੋਤਿ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਜੋਤਿ ਵਿਚ ਮਿਲਾ ਦੇਂਦਾ ਹੈ।੭। ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਤੂੰ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਹੈਂ, ਤੂੰ ਸਰਬ-ਵਿਆਪਕ ਹੈਂ, ਤੂੰ ਅਪਹੁੰਚ ਹੈਂ। ਤੂੰ (ਮਾਨੋ) ਇਕ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਰੁੱਖ ਹੈਂ ਜਿਸ ਦੇ ਆਸਰੇ ਰਹਿਣ ਵਾਲੇ ਅਸੀ ਸਾਰੇ ਜੀਵ ਪੰਛੀ ਹਾਂ। ਹੇ ਨਿਰੰਜਨ ਪ੍ਰਭੂ! ਮੈਨੂੰ ਨਾਨਕ ਨੂੰ ਆਪਣਾ ਨਾਮ ਬਖ਼ਸ਼, ਤਾ ਕਿ ਮੈਂ ਸਦਾ ਹੀ ਗੁਰੂ ਦੇ ਸ਼ਬਦ ਵਿਚ (ਜੁੜ ਕੇ) ਤੇਰੀ ਸਿਫ਼ਤਿ-ਸਾਲਾਹ ਕਰਦਾ ਰਹਾਂ।੮।੪।
अंग : 504
गूजरी महला १ ॥ ऐ जी ना हम उतम नीच न मधिम हरि सरणागति हरि के लोग ॥ नाम रते केवल बैरागी सोग बिजोग बिसरजित रोग ॥१॥ भाई रे गुर किरपा ते भगति ठाकुर की ॥ सतिगुर वाकि हिरदै हरि निरमलु ना जम काणि न जम की बाकी ॥१॥ रहाउ॥ हरि गुण रसन रवहि प्रभ संगे जो तिसु भावै सहजि हरी ॥ बिनु हरि नाम ब्रिथा जगि जीवनु हरि बिनु निहफल मेक घरी ॥२॥ ऐ जी खोटे ठउर नाही घरि बाहरि निंदक गति नही काई ॥ रोसु करै प्रभु बखस न मेटै नित नित चड़ै सवाई ॥३॥ ऐ जी गुर की दाति न मेटै कोई मेरै ठाकुरि आपि दिवाई ॥ निंदक नर काले मुख निंदा जिन्ह गुर की दाति न भाई ॥४॥ ऐ जी सरणि परे प्रभु बखसि मिलावै बिलम न अधूआ राई ॥ आनद मूलु नाथु सिरि नाथा सतिगुरु मेलि मिलाई ॥५॥ ऐ जी सदा दइआलु दइआ करि रविआ गुरमति भ्रमनि चुकाई ॥ पारसु भेटि कंचनु धातु होई सतसंगति की वडिआई ॥६॥ हरि जलु निरमलु मनु इसनानी मजनु सतिगुरु भाई ॥ पुनरपि जनमु नाही जन संगति जोती जोति मिलाई ॥७॥ तूं वड पुरखु अगम तरोवरु हम पंखी तुझ माही ॥ नानक नामु निरंजन दीजै जुगि जुगि सबदि सलाही ॥८॥४॥
अर्थ: हे भाई! जो लोग परमात्मा की भक्ति करते हैं जो परमात्मा की शरण आते हैं उन्हें ना ये गुमान होता है कि हम सबसे ऊँची या बीच की जाति के हैं, ना ये सहम होता है कि हम नीच जाति के हैं। सिर्फ प्रभु नाम में रंगे रहने के कारण वह (इस ऊँच नीच आदि से) निर्मोह रहते हैं। चिन्ता, विछोड़ा रोग आदि वह सब भुला चुके होते हैं।1। हे भाई! परमात्मा की भक्ति गुरु की मेहर से ही हो सकती है। जिस मनुष्य ने सतिगुरु के शब्द के द्वारा अपने हृदय में परमात्मा का पवित्र नाम बसा लिया है, उसको जम की अधीनता नहीं रहती, उसके जिम्मे पिछले किए कर्मों का कोई ऐसा बाकी लेखा नहीं रह जाता जिसके कारण जमराज उस पर कोई जोर डाल सके।1। रहाउ। (परमात्मा के भक्त) परमात्मा की संगति में टिक के अपनी जीभ से परमात्मा के गुण गाते हैं (वे यही समझते हैं कि) सहज ही (जगत में वही घटित होता है) जो उस परमात्मा का भाता है। परमात्मा के नाम के बिना जगत में जीना उन्हें व्यर्थ दिखाई देता है, परमात्मा की भक्ति के बिना उन्हें एक भी घड़ी निष्फल प्रतीत होती है।2। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के भक्तों के वास्ते अपने मन में खोट रखता है और उनकी निंदा करता है उसे ना घर में ना ही बाहर कहीं भी आत्मिक शांति की जगह नहीं मिलती क्योंकि उसकी अपनी आत्मक अवस्था ठीक नहीं है। (परमात्मा अपने भक्तों पर सदा बख्शिशें करता है) अगर निंदक (ये बख्शिशें देख के) खिझे, तो भी परमात्मा अपनी बख्शिशें बंद नहीं करता, वह बल्कि सदा ही बढ़ती जाती है।3। हे भाई! (प्रभु की महिमा) गुरु की दी हुई दाति है, इसको कोई मिटा नहीं सकता; ठाकुर प्रभु ने खुद ही ये (नाम की) दाति दिलवाई होती है। जिस निंदकों को (भक्त-जनों को दी हुई) गुरु की दाति पसंद नहीं आती (और वह भक्तों की निंदा करते हैं) निंदा के कारण उन निंदकों के मुंह काले (दिखते हैं)।4। हे भाई! जो मनुष्य (प्रभु की) शरण पड़ते हैं, प्रभु मेहर करके उन्हें अपने चरणों में जोड़ लेता है, रत्ती भर भी ढील नहीं करता। वह प्रभु आत्मिक आनंद का श्रोत है, सबसे बड़ा नाथ है, गुरु (की शरण पड़े मनुष्य को) परमात्मा के मेल में मिला देता है।5। हे भाई! परमात्मा दया का श्रोत है (सब जीवों पे) सदा दया करता है। जो मनुष्य गुरु की मति ले के उसको स्मरण करता है, प्रभु उसकी भटकना मिटा देता है। जैसे (लोहा आदि) धात पारस को छू के सोना बन जाती है वैसे ही साधु-संगत में भी यही इनायत है।6। परमात्मा (मानो) पवित्र जल है (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसका) मन (इस पवित्र जल में) स्नान करने के लायक बन जाता है। जिस मनुष्य को अपने मन में सतिगुरु प्यारा लगता है उसका मन (इस पवित्र जल में) डुबकी लगाता है। साधु-संगत में रह के उसका बार-बार जन्म नहीं होता, (क्योंकि गुरु) उसकी ज्योति प्रभु की ज्योति में मिला देता है।7। हे प्रभु! तू सबसे बड़ा है, तू सर्व-व्यापक है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है। तू (मानो) एक श्रेष्ठ वृक्ष है जिसके आसरे रहने वाले हम सभी जीव पक्षी हैं। हे निरंजन प्रभु! मुझ नानक को अपना नाम बख्श, ता कि मैं सदा ही गुरु के शब्द में (जुड़ के) तेरी महिमा करता रहूँ।8।4।
15 ਅਕਤੂਬਰ ਜਨਮ ਦਿਨ ਪੰਥ ਰਤਨ ਗਿਆਨੀ ਸੰਤ ਸਿੰਘ ਜੀ ਮਸਕੀਨ ਹੋਣਾ ਦਾ ਆਉ ਸੰਖੇਪ ਝਾਤ ਮਾਰੀਏ ਭਾਈ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਦੇ ਜੀਵਨ ਕਾਲ ਤੇ ਜੀ ।
ਗਿਆਨੀ ਸੰਤ ਸਿੰਘ ਮਸਕੀਨ ਪੰਥ ਦੇ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਵਿਆਖਿਆਕਾਰ, ਮਹਾਨ ਕਥਾਵਾਚਕ, ਗੁਰਮਤਿ ਪ੍ਰਚਾਰ, ਦਲੇਰ ਤੇ ਧਾਰਮਿਕ ਜੀਵਨ ਵਾਲੇ ਪੂਰਨ ਗੁਰਸਿੱਖ ਸਨ।
ਗਿਆਨੀ ਸੰਤ ਸਿੰਘ ਮਸਕੀਨ ਦਾ ਜਨਮ 15 ਅਕਤੂਬਰ 1934 ਈ. ਨੂੰ ਪਿਤਾ ਕਰਤਾਰ ਸਿੰਘ ਦੇ ਗ੍ਰਹਿ ਮਾਤਾ ਰਾਮ ਕੌਰ ਜੀ ਦੀ ਕੁੱਖੋਂ ਕਸਬਾ ਲੱਕ ਮਰਵਤ ਜ਼ਿਲ੍ਹਾ ਬੰਨੂ (ਪਾਕਿਸਤਾਨ) ਵਿਚ ਹੋਇਆ। ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਮੁੱਢਲੀ ਵਿੱਦਿਆ ਖਾਲਸਾ ਸਕੂਲ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਤੋਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤੀ। ਉਪਰੰਤ ਗੌਰਮਿੰਟ ਹਾਈ ਸਕੂਲ ਵਿਚ ਦਾਖਲ ਹੋ ਗਏ, ਪਰ 1947 ਵਿਚ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੰਡ ਹੋਣ ਕਾਰਨ ਮੈਟ੍ਰਿਕ ਦਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਨਾ ਦੇ ਸਕੇ। ਦੇਸ਼ ਵੰਡ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਗਿਆਨੀ ਜੀ ਰਾਜਸਥਾਨ ਦੇ ਜ਼ਿਲ੍ਹਾ ਅਲਵਰ ਵਿਖੇ ਵੱਸ ਗਏ।
ਗਿਆਨੀ ਜੀ ਰੁਚੀਆਂ ਦੀ ਪ੍ਰਬਲਤਾ ਦੇ ਕਾਰਨ ਧਾਰਮਿਕ ਸੰਤ ਬਣ ਗਏ। ਬੈਜਨਾਥ ਧਾਮ ਤੇ ਕਟਕ ਆਦਿ ਥਾਵਾਂ ’ਤੇ ਸਾਧੂਆਂ ਨਾਲ ਵਿਚਰਦੇ ਰਹੇ। ਉਹਨਾਂ ਨਿਰਮਲੇ ਸੰਤ ਗਿਆਨੀ ਬਲਵੰਤ ਸਿੰਘ ਪਾਸੋਂ ਬ੍ਰਹਮ ਵਿੱਦਿਆ ਹਾਸਲ ਕੀਤੀ। ਸੰਤਾਂ ਦੀ ਸੰਗਤ ਸਦਕਾ ਕਥਾ ਕਰਨੀ ਆਰੰਭ ਕਰ ਦਿੱਤੀ। ਗੁਰਮਤਿ ਦੇ ਧਾਰਨੀ ਹੋਣ ਦੇ ਨਾਲ ਨਾਲ ਪੂਰਨ ਤਿਆਗੀ, ਸੰਜਮੀ, ਨਾਮਬਾਣੀ ਦੇ ਰਸੀਏ ਤੇ ਨਿਮਰਤਾ ਦੇ ਪੁੰਜ ਸਨ। ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਕਥਾ ਵਿਚ ਇੰਨਾ ਰਸ ਸੀ ਕਿ ਦੂਰ-ਦੂਰ ਤੋਂ ਕਥਾ ਸੁਣਨ ਲਈ ਸੰਗਤਾਂ ਆਉਂਦੀਆਂ ਸਨ। ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਦੇ ਕਥਾ ਕਰਨ ਦਾ ਢੰਗ ਆਮ ਕਥਾਕਾਰਾਂ ਨਾਲੋਂ ਨਿਵੇਕਲਾ ਸੀ। ਉਹ ਸੰਗਤਾਂ ਨੂੰ ਬਹੁਤ ਹੀ ਨਿਮਰਤਾ ਨਾਲ ਸਟੀਕ ਟਿੱਪਣੀਆਂ ਕਰਿਆ ਕਰਦੇ ਸਨ।
ਗਿਆਨੀ ਜੀ ਨੂੰ ‘ਮਸਕੀਨ’ ਲਕਬ ਬਾਬਾ ਬਲਵੰਤ ਸਿੰਘ ਜੀ ਨੇ ਆਪ ਦਿੱਤਾ। 1958 ਵਿਚ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਵਿਆਹ ਬੀਬੀ ਸੁੰਦਰ ਕੌਰ ਨਾਲ ਹੋਇਆ। ਉਹਨਾਂ ਗ੍ਰਹਿਸਥੀ ਜੀਵਨ ਦੇ ਨਾਲ ਨਾਲ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕਰਨ ਦਾ ਕੰਮ ਵੀ ਜਾਰੀ ਰੱਖਿਆ। 1960 ਵਿਚ ਉਹਨਾਂ ਆਪਣੇ ਗ੍ਰਹਿ ਵਿਖੇ ਗੁਰਮਤਿ ਸਮਾਗਮਾਂ ਦੀ ਸ਼ੁਰੂਆਤ ਕੀਤੀ। ਅਲਵਰ ਵਿਖੇ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਪਬਲਿਕ ਸਕੂਲ ਤੇ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਹਰਿਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਪਬਲਿਕ ਸਕੂਲ ਗਿਆਨੀ ਜੀ ਦੀ ਦੇਖ-ਰੇਖ ਵਿਚ ਚੱਲ ਰਹੇ ਸਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਕੂਲਾਂ ਵਿਚ ਪੜ੍ਹਦੇ ਗਰੀਬ ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਮੁਫਤ ਕਿਤਾਬਾਂ ਤੇ ਵਰਦੀਆਂ ਦਿੰਦੇ ਸਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਕੂਲਾਂ ਦਾ ਖਰਚਾ ਵੀ ਜ਼ਿਆਦਾਤਰ ਗਿਆਨੀ ਜੀ ਆਪ ਕਰਦੇ ਸਨ। ਅਲਵਰ ਵਿਖੇ ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਦੀ ਸਰਪ੍ਰਸਤੀ ਹੇਠ ਸਾਲਾਨਾ ਗੁਰਮਤਿ ਸਮਾਗਮ ਮਨਾਇਆ ਜਾਂਦਾ ਸੀ।
ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਗਿਆਨ ਦੇ ਭੰਡਾਰ ਸਨ। ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ, ਪੰਜਾਬੀ, ਹਿੰਦੀ, ਉਰਦੂ, ਅਰਬੀ, ਫਾਰਸੀ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਦਾ ਗੂੜ੍ਹਾ ਗਿਆਨ ਸੀ। ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਨੂੰ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਜੀ, ਸਿੱਖ ਇਤਿਹਾਸ ਅਤੇ ਸਿੱਖ ਧਰਮ ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਪੁਰਾਤਨ ਤੇ ਵਰਤਮਾਨ ਗ੍ਰੰਥਾਂ ਦਾ ਡੂੰਘਾ ਗਿਆਨ ਸੀ। ਉਹ ਕਥਾ ਕਰਦੇ ਸਮੇਂ ਅਨੇਕਾਂ ਹੀ ਅਰਬੀ, ਫਾਰਸੀ ਦੇ ਸ਼ੇਅਰ ਪੇਸ਼ ਕਰਕੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟਾਂਤ ਦੇ ਕੇ ਸਮਝਾਉਂਦੇ। ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਦਸਮ ਗ੍ਰੰਥ, ਵੇਦ, ਉਪਨਿਸ਼ਦ ਅਤੇ ਹੋਰ ਸੰਸਕ੍ਰਿਤ ਸਾਹਿਤ ਦਾ ਮੁਤਾਲਿਆ ਕੀਤਾ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਡਾ. ਅਲਾਮਾ ਇਕਬਾਲ, ਮਿਰਜ਼ਾ ਗ਼ਾਲਿਬ, ਮੀਰ ਤਕੀ ਮੀਰ ਵਰਗੇ ਉਸਤਾਦ ਸ਼ਾਇਰਾਂ ਦੇ ਕਲਾਮ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਜ਼ੁਬਾਨੀ ਯਾਦ ਸੀ। ਉਹ ਸਿੱਖ ਧਰਮ ਦੇ…
ਇਨਸਾਈਕਲੋਪੀਡੀਆ ਸਨ। ਉਹਨਾਂ ਸਿੱਖ ਧਰਮ ਦੇ ਪ੍ਰਚਾਰ, ਪਸਾਰ ਅਤੇ ਸਿੱਖ ਗੁਰੂਆਂ ਦੀਆਂ ਸਿੱਖਿਆਵਾਂ ਪੂਰੇ ਸੰਸਾਰ ਵਿਚ ਫੈਲਾਉਣ ਲਈ ਵਰਨਣਯੋਗ ਕੰਮ ਕੀਤਾ। ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਨੇ 50 ਸਾਲ ਤਕ ਦੇਸ਼ਾਂ-ਵਿਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਗੁਰਮਤਿ ਦਾ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕੀਤਾ। ਉਹਨਾਂ ਆਪਣੀ ਗੱਲ ਨੂੰ ਬਹੁਤ ਹੀ ਸਰਲ ਤੇ ਸਾਦੇ ਸ਼ਬਦਾਂ ਵਿਚ ਅਤੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟਾਂਤ ’ਤੇ ਵਾਰ-ਵਾਰ ਗੱਲ ਕਰਕੇ ਦੱਸਣ ਦੀ ਨਿਵੇਕਲੀ ਸ਼ੈਲੀ ਵਿਕਸਤ ਕੀਤੀ ਹੋਈ ਸੀ। ਉਹ ਇੱਕ ਗੱਲ ਨੂੰ ਵਾਰ-ਵਾਰ ਕਰਦੇ ਤਾਂ ਜੋ ਸੰਗਤਾਂ ਨੂੰ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਦੱਸਿਆ ਨੁਕਤਾ ਸਮਝ ਆ ਸਕੇ। ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਜੋ ਕਹਿੰਦੇ, ਉਸ ’ਤੇ ਅਮਲ ਵੀ ਕਰਦੇ ਸਨ। ਇਹੀ ਕਾਰਨ ਹੈ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਕਥਾ ਵਿਆਖਿਆ ਦਾ ਅਸਰ ਸੰਗਤਾਂ ਵਿਚ ਰਚ-ਮਿਚ ਜਾਂਦਾ ਸੀ। ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਲਿਬਾਸ ਬਹੁਦ ਸਾਦਾ ਸੀ। ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਦੇਸ਼-ਵਿਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕਰਨ ਲਈ ਜਿੱਥੇ ਵੀ ਜਾਂਦੇ, ਰਿਹਾਇਸ਼ ਉਹ ਆਪਣੀ ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਹੀ ਰੱਖਦੇ ਸਨ। ਪ੍ਰਸ਼ਾਦਾ ਵੀ ਉਹ ਗੁਰਦੁਆਰੇ ਦੇ ਲੰਗਰ ਵਿਚ ਹੀ ਛਕਦੇ ਸਨ। ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਵੱਲੋਂ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਹਰ ਸਾਲ ਬਹੁਤ ਥਾਵਾਂ ’ਤੇ ਗੁਰਮਤਿ ਸਮਾਗਮ ਕਰਵਾਏ ਜਾਂਦੇ ਸਨ। ਉਹ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਜੀ ਦੇ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਦਿਵਸ ’ਤੇ ਪਟਨਾ ਸਾਹਿਬ ਵਿਖੇ, ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਰਾਮਦਾਸ ਜੀ ਦੇ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਗੁਰਪੁਰਬ ਅਤੇ ਦੀਵਾਲੀ ’ਤੇ ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਕੇਂਦਰੀ ਧਾਰਮਿਕ ਅਸਥਾਨ ਸੱਚਖੰਡ ਸ੍ਰੀ ਹਰਿਮੰਦਰ ਸਾਹਿਬ ਅੰਮ੍ਰਿਤਸਰ ਅਤੇ ਮੰਜੀ ਸਾਹਿਬ ਦੇ ਦੀਵਾਨ ਹਾਲ ਵਿਚ ਸਵੇਰੇ ਸ਼ਾਮ ਕਥਾ ਅਤੇ ਗੁਰਬਾਣੀ ਦੀ ਵਿਆਖਿਆ 40 ਸਾਲ ਤੋਂ ਕਰਦੇ ਰਹੇ ਹਨ।
ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਜਿੱਥੇ ਚੰਗੇ ਬੁਲਾਰੇ ਸਨ, ਉਥੇ ਉਹ ਕਲਮ ਦੇ ਧਨੀ ਵੀ ਸਨ। ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਜਪੁ ਨੀਸਾਣ, ਗੁਰੂ ਚਿੰਤਨ, ਗੁਰੂ ਜੋਤੀ, ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨ, ਤੀਜਾ ਨੇਤਰ, ਪੰਜ ਤੱਤ, ਧਰਮ ਤੇ ਮਨੁੱਖ, ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਦੇ ਲੈਕਚਰ ਸਮੇਤ ਇੱਕ ਦਰਜਨ ਤੋਂ ਵੀ ਵੱਧ ਪੁਸਤਕਾਂ ਸਿੱਖ ਜਗਤ ਨੂੰ ਭੇਟ ਕੀਤੀਆਂ ਹਨ। ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਦੇ ਲੈਕਚਰ ਕੈਸੇਟਾਂ ਅਤੇ ਸੀਡੀਜ਼ ਰਾਹੀਂ ਵੀ ਮਾਰਕੀਟ ਵਿਚ ਉਪਲਬਧ ਹਨ। ਈ.ਟੀ.ਸੀ. ਚੈਨਲ ਪੰਜਾਬੀ ਤੋਂ ਰੋਜ਼ਾਨਾ ਸਵੇਰੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਲੜੀਵਾਰ ਕਥਾ ਆਉਂਦੀ ਰਹੀ।
ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਨੂੰ ਪੰਥ ਰਤਨ ਦੀ ਉਪਾਧੀ ਤੇ ਦੇਸ਼-ਵਿਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਅਨੇਕਾਂ ਮਾਣ-ਸਨਮਾਨਾਂ ਨਾਲ ਸਨਮਾਨਤ ਕੀਤਾ ਗਿਆ।
20 ਮਾਰਚ 2005 ਨੂੰ ਸ੍ਰੀ ਅਕਾਲ ਤਖ਼ਤ ਅੰਮ੍ਰਿਤਸਰ ਤੋਂ ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਦੀ ਮੌਤ ਉਪਰੰਤ ‘ਗੁਰਮਤਿ ਵਿੱਦਿਆ ਮਾਰਤੰਡ’ ਦੀ ਉਪਾਧੀ ਨਾਲ ਨਿਵਾਜਿਆ ਗਿਆ।
ਸ੍ਰੀ ਅਕਾਲ ਤਖ਼ਤ ਸਾਹਿਬ ਦੇ ਜਥੇਦਾਰ ਗਿਆਨੀ ਜੋਗਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਵੇਦਾਂਤੀ ਵੱਲੋਂ ਸਨਮਾਨ ਪੱਤਰ, ਤਸ਼ਤਰੀ, ਸਿਰੋਪਾਓ, ਸਿਰੀ ਸਾਹਿਬ ਨਾਲ ਮਸਕੀਨ ਜੀ ਦੀ ਧਰਮ ਪਤਨੀ ਬੀਬੀ ਸੁੰਦਰ ਕੌਰ ਨੂੰ ਸਨਮਾਨਤ ਕੀਤਾ ਗਿਆ।
ਇਸ ਮੌਕੇ ਸ਼੍ਰੋਮਣੀ ਗੁਰਦੁਆਰਾ ਪ੍ਰਬੰਧਕ ਕਮੇਟੀ ਵੱਲੋਂ ‘ਭਾਈ ਗੁਰਦਾਸ ਪੁਰਸਕਾਰ’ ਨਾਲ ਸਨਮਾਨਤ ਕੀਤਾ ਗਿਆ।
ਪੰਥ ਦੇ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਵਿਦਵਾਨ, ਕਥਾਵਾਚਕ, ਗਿਆਨੀ ਸੰਤ ਸਿੰਘ ਜੀ ਮਸਕੀਨ 18 ਫਰਵਰੀ, 2005 ਈ. ਦਿਨ ਸ਼ੁੱਕਰਵਾਰ ਨੂੰ 71 ਸਾਲ ਦੀ ਉਮਰ ਬਤੀਤ ਕਰਕੇ ਗੁਰੂ ਚਰਨਾਂ ਵਿਚ ਜਾ ਬਿਰਾਜੇ।
ਅੰਗ : 694
ਧਨਾਸਰੀ ਭਗਤ ਰਵਿਦਾਸ ਜੀ ਕੀ ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ਹਮ ਸਰਿ ਦੀਨੁ ਦਇਆਲੁ ਨ ਤੁਮ ਸਰਿ ਅਬ ਪਤੀਆਰੁ ਕਿਆ ਕੀਜੈ ॥ ਬਚਨੀ ਤੋਰ ਮੋਰ ਮਨੁ ਮਾਨੈ ਜਨ ਕਉ ਪੂਰਨੁ ਦੀਜੈ ॥੧॥ ਹਉ ਬਲਿ ਬਲਿ ਜਾਉ ਰਮਈਆ ਕਾਰਨੇ ॥ ਕਾਰਨ ਕਵਨ ਅਬੋਲ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਬਹੁਤ ਜਨਮ ਬਿਛੁਰੇ ਥੇ ਮਾਧਉ ਇਹੁ ਜਨਮੁ ਤੁਮ੍ਹ੍ਹਾਰੇ ਲੇਖੇ ॥ ਕਹਿ ਰਵਿਦਾਸ ਆਸ ਲਗਿ ਜੀਵਉ ਚਿਰ ਭਇਓ ਦਰਸਨੁ ਦੇਖੇ ॥੨॥੧॥
ਅਰਥ: (ਹੇ ਮਾਧੋ!) ਮੇਰੇ ਵਰਗਾ ਕੋਈ ਨਿਮਾਣਾ ਨਹੀਂ, ਤੇ, ਤੇਰੇ, ਵਰਗਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਦਇਆ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਨਹੀਂ, (ਮੇਰੀ ਕੰਗਾਲਤਾ ਦਾ) ਹੁਣ ਹੋਰ ਪਰਤਾਵਾ ਕਰਨ ਦੀ ਲੋੜ ਨਹੀਂ। (ਹੇ ਸੋਹਣੇ ਰਾਮ!) ਮੈਨੂੰ ਦਾਸ ਨੂੰ ਇਹ ਪੂਰਨ ਸਿਦਕ ਬਖ਼ਸ਼ ਕਿ ਮੇਰਾ ਮਨ ਤੇਰੀ ਸਿਫ਼ਤਿ-ਸਾਲਾਹ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਵਿਚ ਪਰਚ ਜਾਇਆ ਕਰੇ।੧। ਹੇ ਸੋਹਣੇ ਰਾਮ! ਮੈਂ ਤੈਥੋਂ ਸਦਾ ਸਦਕੇ ਹਾਂ; ਤੂੰ ਕਿਸ ਗੱਲੇ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਬੋਲਦਾ?।ਰਹਾਉ। ਰਵਿਦਾਸ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ -ਹੇ ਮਾਧੋ! ਕਈ ਜਨਮਾਂ ਤੋਂ ਮੈਂ ਤੈਥੋਂ ਵਿਛੁੜਿਆ ਆ ਰਿਹਾ ਹਾਂ (ਮਿਹਰ ਕਰ, ਮੇਰਾ) ਇਹ ਜਨਮ ਤੇਰੀ ਯਾਦ ਵਿਚ ਬੀਤੇ; ਤੇਰਾ ਦੀਦਾਰ ਕੀਤਿਆਂ ਬੜਾ ਚਿਰ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, (ਦਰਸ਼ਨ ਦੀ) ਆਸ ਵਿਚ ਹੀ ਮੈਂ ਜੀਊਂਦਾ ਹਾਂ ॥੨॥੧॥
अंग : 694
धनासरी, भगत रवि दास जी की ੴ सतिगुर परसाद हम सरि दीनु दइआल न तुम सरि अब पतिआरू किया कीजे ॥ बचनी तोर मोर मनु माने जन कऊ पूरण दीजे ॥१॥ हउ बलि बलि जाउ रमईआ कारने ॥ कारन कवन अबोल ॥ रहाउ ॥ बहुत जनम बिछुरे थे माधउ इहु जनमु तुम्हारे लेखे ॥ कहि रविदास आस लगि जीवउ चिर भइओ दरसनु देखे ॥२॥१॥
अर्थ: (हे माधो मेरे जैसा कोई दीन और कंगाल नहीं हे और तेरे जैसा कोई दया करने वाला नहीं, (मेरी कंगालता का) अब और परतावा करने की जरुरत नहीं (हे सुंदर राम!) मुझे दास को यह सिदक बक्श की मेरा मन तेरी सिफत सलाह की बाते करने में ही लगा रहे।१। हे सुंदर राम! में तुझसे सदके हूँ, तू किस कारण मेरे साथ नहीं बोलता?||रहाउ|| रविदास जी कहते हैं- हे माधो! कई जन्मो से मैं तुझ से बिछुड़ा आ रहा हूँ (कृपा कर, मेरा) यह जनम तेरी याद में बीते; तेरा दीदार किये बहुत समां हो गया है, (दर्शन की) आस में जीवित हूँ॥२॥१॥

