सोरठि महला ४ ॥ हरि सिउ प्रीति अंतरु मनु बेधिआ हरि बिनु रहणु न जाई ॥ जिउ मछुली बिनु नीरै बिनसै तिउ नामै बिनु मरि जाई ॥१॥ मेरे प्रभ किरपा जलु देवहु हरि नाई ॥ हउ अंतरि नामु मंगा दिनु राती नामे ही सांति पाई ॥ रहाउ ॥ जिउ चात्रिकु जल बिनु बिललावै बिनु जल पिआस न जाई ॥ गुरमुखि जलु पावै सुख सहजे हरिआ भाइ सुभाई ॥२॥
हे भाई! परमात्मा से प्यार के द्वारा जिस मनुख का हृदय जिस मनुख का मन भीग जाता है, वह परमात्मा (की याद) के बिना रह नहीं सकता। जैसे पानी के बिना मछली मर जाती है, उसी प्रकार मनुख प्रभु के नाम के बिना अपनी आत्मिक मौत आ गयी समझता है॥१॥ हे मेरे प्रभु! (मुझे अपनी) कृपा का जल दे। हे हरी! मुझे अपनी सिफत-सलाह की दात दे। मैं अपने हृदय में दिन रात तेरा नाम (ही) मांगता हूँ, (क्योंकि तेरे) नाम में जुड़ने से ही आत्मिक ठंडक प्राप्त हो सकती है॥रहाउ॥ हे भाई! जैसे वर्षा-जल के बिना पपीहा बिलकता है, वर्षा की बूँद के बिना उस की प्यास नहीं मिटती, उसी प्रकार जो मनुख गुरु की सरन आता है, तब वह प्रभु की बरकत से आत्मिक जीवन वाला बनता है, जब वह आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल (गुरु पास से) प्राप्त करता है॥२॥
ਅੰਗ : 607
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੪ ॥ ਹਰਿ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਅੰਤਰੁ ਮਨੁ ਬੇਧਿਆ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਰਹਣੁ ਨ ਜਾਈ ॥ ਜਿਉ ਮਛੁਲੀ ਬਿਨੁ ਨੀਰੈ ਬਿਨਸੈ ਤਿਉ ਨਾਮੈ ਬਿਨੁ ਮਰਿ ਜਾਈ ॥੧॥ ਮੇਰੇ ਪ੍ਰਭ ਕਿਰਪਾ ਜਲੁ ਦੇਵਹੁ ਹਰਿ ਨਾਈ ॥ ਹਉ ਅੰਤਰਿ ਨਾਮੁ ਮੰਗਾ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਨਾਮੇ ਹੀ ਸਾਂਤਿ ਪਾਈ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਜਿਉ ਚਾਤ੍ਰਿਕੁ ਜਲ ਬਿਨੁ ਬਿਲਲਾਵੈ ਬਿਨੁ ਜਲ ਪਿਆਸ ਨ ਜਾਈ ॥ ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਲੁ ਪਾਵੈ ਸੁਖ ਸਹਜੇ ਹਰਿਆ ਭਾਇ ਸੁਭਾਈ ॥੨॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਪਿਆਰ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਹਿਰਦਾ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਮਨ ਵਿੱਝ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ (ਦੀ ਯਾਦ) ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਰਹਿ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। ਜਿਵੇਂ ਪਾਣੀ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਮੱਛੀ ਮਰ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਤਿਵੇਂ ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਆਪਣੀ ਆਤਮਕ ਮੌਤ ਆ ਗਈ ਸਮਝਦਾ ਹੈ ॥੧॥ ਹੇ ਮੇਰੇ ਪ੍ਰਭੂ! (ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੀ) ਮੇਹਰ ਦਾ ਜਲ ਦੇਹ। ਹੇ ਹਰੀ! ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਦੀ ਦਾਤਿ ਦੇਹ। ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਦਿਨ ਰਾਤ ਤੇਰਾ ਨਾਮ (ਹੀ) ਮੰਗਦਾ ਹਾਂ (ਕਿਉਂਕਿ ਤੇਰੇ) ਨਾਮ ਵਿਚ ਜੁੜਿਆਂ ਹੀ ਆਤਮਕ ਠੰਡ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ ॥ ਰਹਾਉ॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜਿਵੇਂ ਵਰਖਾ-ਜਲ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਪਪੀਹਾ ਵਿਲਕਦਾ ਹੈ, ਵਰਖਾ ਦੀ ਬੂੰਦ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਉਸ ਦੀ ਤ੍ਰੇਹ ਨਹੀਂ ਮਿਟਦੀ, ਤਿਵੇਂ ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਪੈਂਦਾ ਹੈ ਉਹ ਤਦੋਂ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਵਾਲਾ ਬਣਦਾ ਹੈ ਜਦੋਂ ਉਹ ਆਤਮਕ ਅਡੋਲਤਾ ਵਿਚ ਟਿਕ ਕੇ ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਨਾਮ-ਜਲ (ਗੁਰੂ ਪਾਸੋਂ) ਹਾਸਲ ਕਰਦਾ ਹੈ ॥੨॥
सोरठि महला ४ ॥ हरि सिउ प्रीति अंतरु मनु बेधिआ हरि बिनु रहणु न जाई ॥ जिउ मछुली बिनु नीरै बिनसै तिउ नामै बिनु मरि जाई ॥१॥ मेरे प्रभ किरपा जलु देवहु हरि नाई ॥ हउ अंतरि नामु मंगा दिनु राती नामे ही सांति पाई ॥ रहाउ ॥ जिउ चात्रिकु जल बिनु बिललावै बिनु जल पिआस न जाई ॥ गुरमुखि जलु पावै सुख सहजे हरिआ भाइ सुभाई ॥२॥
हे भाई! परमात्मा से प्यार के द्वारा जिस मनुख का हृदय जिस मनुख का मन भीग जाता है, वह परमात्मा (की याद) के बिना रह नहीं सकता। जैसे पानी के बिना मछली मर जाती है, उसी प्रकार मनुख प्रभु के नाम के बिना अपनी आत्मिक मौत आ गयी समझता है॥१॥ हे मेरे प्रभु! (मुझे अपनी) कृपा का जल दे। हे हरी! मुझे अपनी सिफत-सलाह की दात दे। मैं अपने हृदय में दिन रात तेरा नाम (ही) मांगता हूँ, (क्योंकि तेरे) नाम में जुड़ने से ही आत्मिक ठंडक प्राप्त हो सकती है॥रहाउ॥ हे भाई! जैसे वर्षा-जल के बिना पपीहा बिलकता है, वर्षा की बूँद के बिना उस की प्यास नहीं मिटती, उसी प्रकार जो मनुख गुरु की सरन आता है, तब वह प्रभु की बरकत से आत्मिक जीवन वाला बनता है, जब वह आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल (गुरु पास से) प्राप्त करता है॥२॥
ਅੰਗ : 607
ਸੋਰਠਿ ਮਹਲਾ ੪ ॥ ਹਰਿ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਅੰਤਰੁ ਮਨੁ ਬੇਧਿਆ ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਰਹਣੁ ਨ ਜਾਈ ॥ ਜਿਉ ਮਛੁਲੀ ਬਿਨੁ ਨੀਰੈ ਬਿਨਸੈ ਤਿਉ ਨਾਮੈ ਬਿਨੁ ਮਰਿ ਜਾਈ ॥੧॥ ਮੇਰੇ ਪ੍ਰਭ ਕਿਰਪਾ ਜਲੁ ਦੇਵਹੁ ਹਰਿ ਨਾਈ ॥ ਹਉ ਅੰਤਰਿ ਨਾਮੁ ਮੰਗਾ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਨਾਮੇ ਹੀ ਸਾਂਤਿ ਪਾਈ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਜਿਉ ਚਾਤ੍ਰਿਕੁ ਜਲ ਬਿਨੁ ਬਿਲਲਾਵੈ ਬਿਨੁ ਜਲ ਪਿਆਸ ਨ ਜਾਈ ॥ ਗੁਰਮੁਖਿ ਜਲੁ ਪਾਵੈ ਸੁਖ ਸਹਜੇ ਹਰਿਆ ਭਾਇ ਸੁਭਾਈ ॥੨॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ! ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਪਿਆਰ ਦੀ ਰਾਹੀਂ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਹਿਰਦਾ ਜਿਸ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਮਨ ਵਿੱਝ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ (ਦੀ ਯਾਦ) ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਰਹਿ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। ਜਿਵੇਂ ਪਾਣੀ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਮੱਛੀ ਮਰ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਤਿਵੇਂ ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਆਪਣੀ ਆਤਮਕ ਮੌਤ ਆ ਗਈ ਸਮਝਦਾ ਹੈ ॥੧॥ ਹੇ ਮੇਰੇ ਪ੍ਰਭੂ! (ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੀ) ਮੇਹਰ ਦਾ ਜਲ ਦੇਹ। ਹੇ ਹਰੀ! ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੀ ਸਿਫ਼ਤ-ਸਾਲਾਹ ਦੀ ਦਾਤਿ ਦੇਹ। ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਦਿਨ ਰਾਤ ਤੇਰਾ ਨਾਮ (ਹੀ) ਮੰਗਦਾ ਹਾਂ (ਕਿਉਂਕਿ ਤੇਰੇ) ਨਾਮ ਵਿਚ ਜੁੜਿਆਂ ਹੀ ਆਤਮਕ ਠੰਡ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ ॥ ਰਹਾਉ॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਜਿਵੇਂ ਵਰਖਾ-ਜਲ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਪਪੀਹਾ ਵਿਲਕਦਾ ਹੈ, ਵਰਖਾ ਦੀ ਬੂੰਦ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਉਸ ਦੀ ਤ੍ਰੇਹ ਨਹੀਂ ਮਿਟਦੀ, ਤਿਵੇਂ ਜੇਹੜਾ ਮਨੁੱਖ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਪੈਂਦਾ ਹੈ ਉਹ ਤਦੋਂ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਬਰਕਤਿ ਨਾਲ ਆਤਮਕ ਜੀਵਨ ਵਾਲਾ ਬਣਦਾ ਹੈ ਜਦੋਂ ਉਹ ਆਤਮਕ ਅਡੋਲਤਾ ਵਿਚ ਟਿਕ ਕੇ ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਨਾਮ-ਜਲ (ਗੁਰੂ ਪਾਸੋਂ) ਹਾਸਲ ਕਰਦਾ ਹੈ ॥੨॥
धनासरी महला ५ ॥ अउखी घड़ी न देखण देई अपना बिरदु समाले ॥ हाथ देइ राखै अपने कउ सासि सासि प्रतिपाले ॥१॥ प्रभ सिउ लागि रहिओ मेरा चीतु ॥ आदि अंति प्रभु सदा सहाई धंनु हमारा मीतु ॥ रहाउ ॥ मनि बिलास भए साहिब के अचरज देखि बडाई ॥ हरि सिमरि सिमरि आनद करि नानक प्रभि पूरन पैज रखाई ॥२॥१५॥४६॥
हे भाई! (वह प्रभु अपने सेवक को) कोई दुःख दुःख देने वाला समय देखने नहीं देता, वह अपना मूढ़-कदीमा का (प्यार वाला) सवभाव सदा याद रखता है। प्रभु अपना हाथ दे के अपने सेवक की राखी करता है, (सेवक को उसकी ) हरेक साँस के साथ पलता है॥१॥ हे भाई! मेरा मन (भी) उस प्रभु से जुदा रहता है, जो शुरु से आखिर तक सदा ही मददगार बना रहता है। हमारा वह मित्र प्रभु धन्य है (उस की सदा सिफत-सलाह करनी चाहिये)॥रहाउ॥ हे भाई! मालिक-प्रभु के हैरान करने वाले कोटक देख के, उस की बढाई देख के, (सेवक के) मन में (भी) खुशियाँ बनी रहती है। हे नानक! तू भी परमात्मा का नाम सुमिरन कर कर के आत्मिक आनंद मना। (जिस भी मनुख ने सिमरन किया) प्रभु ने पूरे तौर पर उस की इज्जत रख ली॥२॥१५॥४६॥
ਅੰਗ : 682
ਧਨਾਸਰੀ ਮਹਲਾ ੫ ॥ ਅਉਖੀ ਘੜੀ ਨ ਦੇਖਣ ਦੇਈ ਅਪਨਾ ਬਿਰਦੁ ਸਮਾਲੇ ॥ ਹਾਥ ਦੇਇ ਰਾਖੈ ਅਪਨੇ ਕਉ ਸਾਸਿ ਸਾਸਿ ਪ੍ਰਤਿਪਾਲੇ ॥੧॥ ਪ੍ਰਭ ਸਿਉ ਲਾਗਿ ਰਹਿਓ ਮੇਰਾ ਚੀਤੁ ॥ ਆਦਿ ਅੰਤਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸਦਾ ਸਹਾਈ ਧੰਨੁ ਹਮਾਰਾ ਮੀਤੁ ॥ ਰਹਾਉ ॥ ਮਨਿ ਬਿਲਾਸ ਭਏ ਸਾਹਿਬ ਕੇ ਅਚਰਜ ਦੇਖਿ ਬਡਾਈ ॥ ਹਰਿ ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਆਨਦ ਕਰਿ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭਿ ਪੂਰਨ ਪੈਜ ਰਖਾਈ ॥੨॥੧੫॥੪੬॥
ਅਰਥ: ਹੇ ਭਾਈ! (ਉਹ ਪ੍ਰਭੂ ਆਪਣੇ ਸੇਵਕ ਨੂੰ) ਕੋਈ ਦੁੱਖ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਸਮਾ ਨਹੀਂ ਵੇਖਣ ਦੇਂਦਾ, ਉਹ ਆਪਣਾ ਮੁੱਢ-ਕਦੀਮਾਂ ਦਾ (ਪਿਆਰ ਵਾਲਾ) ਸੁਭਾਉ ਸਦਾ ਚੇਤੇ ਰੱਖਦਾ ਹੈ। ਪ੍ਰਭੂ ਆਪਣਾ ਹੱਥ ਦੇ ਕੇ ਆਪਣੇ ਸੇਵਕ ਦੀ ਰਾਖੀ ਕਰਦਾ ਹੈ, (ਸੇਵਕ ਨੂੰ ਉਸ ਦੇ) ਹਰੇਕ ਸਾਹ ਦੇ ਨਾਲ ਪਾਲਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ ॥੧॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਮੇਰਾ ਮਨ (ਭੀ) ਉਸ ਪ੍ਰਭੂ ਨਾਲ ਜੁੜਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ, ਜੋ ਸ਼ੁਰੂ ਤੋਂ ਅਖ਼ੀਰ ਤਕ ਸਦਾ ਹੀ ਮਦਦਗਾਰ ਬਣਿਆ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। ਸਾਡਾ ਉਹ ਮਿੱਤਰ ਪ੍ਰਭੂ ਧੰਨ ਹੈ (ਉਸ ਦੀ ਸਦਾ ਸਿਫ਼ਤ ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ) ॥ ਰਹਾਉ॥ ਹੇ ਭਾਈ! ਮਾਲਕ-ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਹੈਰਾਨ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਕੌਤਕ ਵੇਖ ਕੇ, ਉਸ ਦੀ ਵਡਿਆਈ ਵੇਖ ਕੇ, (ਸੇਵਕ ਦੇ) ਮਨ ਵਿਚ (ਭੀ) ਖ਼ੁਸ਼ੀਆਂ ਬਣੀਆਂ ਰਹਿੰਦੀਆਂ ਹਨ। ਹੇ ਨਾਨਕ! ਤੂੰ ਭੀ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਨਾਮ ਸਿਮਰ ਸਿਮਰ ਕੇ ਆਤਮਕ ਆਨੰਦ ਮਾਣ। (ਜਿਸ ਭੀ ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਸਿਮਰਨ ਕੀਤਾ) ਪ੍ਰਭੂ ਨੇ ਪੂਰੇ ਤੌਰ ਤੇ ਉਸ ਦੀ ਇੱਜ਼ਤ ਰੱਖ ਲਈ ॥੨॥੧੫॥੪੬॥
धनासरी महला १ ॥ जीवा तेरै नाइ मनि आनंदु है जीउ ॥ साचो साचा नाउ गुण गोविंदु है जीउ ॥ गुर गिआनु अपारा सिरजणहारा जिनि सिरजी तिनि गोई ॥ परवाणा आइआ हुकमि पठाइआ फेरि न सकै कोई ॥ आपे करि वेखै सिरि सिरि लेखै आपे सुरति बुझाई ॥ नानक साहिबु अगम अगोचरु जीवा सची नाई ॥१॥ तुम सरि अवरु न कोइ आइआ जाइसी जीउ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु भरमु चुकाइसी जीउ ॥ गुरु भरमु चुकाए अकथु कहाए सच महि साचु समाणा ॥ आपि उपाए आपि समाए हुकमी हुकमु पछाणा ॥ सची वडिआई गुर ते पाई तू मनि अंति सखाई ॥ नानक साहिबु अवरु न दूजा नामि तेरै वडिआई ॥२॥ तू सचा सिरजणहारु अलख सिरंदिआ जीउ ॥ एकु साहिबु दुइ राह वाद वधंदिआ जीउ ॥ दुइ राह चलाए हुकमि सबाए जनमि मुआ संसारा ॥ नाम बिना नाही को बेली बिखु लादी सिरि भारा ॥ हुकमी आइआ हुकमु न बूझै हुकमि सवारणहारा ॥ नानक साहिबु सबदि सिञापै साचा सिरजणहारा ॥३॥ भगत सोहहि दरवारि सबदि सुहाइआ जीउ ॥ बोलहि अम्रित बाणि रसन रसाइआ जीउ ॥ रसन रसाए नामि तिसाए गुर कै सबदि विकाणे ॥ पारसि परसिऐ पारसु होए जा तेरै मनि भाणे ॥ अमरा पदु पाइआ आपु गवाइआ विरला गिआन वीचारी ॥ नानक भगत सोहनि दरि साचै साचे के वापारी ॥४॥ भूख पिआसो आथि किउ दरि जाइसा जीउ ॥ सतिगुर पूछउ जाइ नामु धिआइसा जीउ ॥ सचु नामु धिआई साचु चवाई गुरमुखि साचु पछाणा ॥ दीना नाथु दइआलु निरंजनु अनदिनु नामु वखाणा ॥ करणी कार धुरहु फुरमाई आपि मुआ मनु मारी ॥ नानक नामु महा रसु मीठा त्रिसना नामि निवारी ॥५॥२॥
अर्थ: हे प्रभू जी! तेरे नाम में (जुड़ कर) मेरे अंदर आतमिक जीवन पैदा होता है, मेरे मन में ख़ुश़ी पैदा होती है। हे भाई! परमात्मा का नाम सदा-थिर रहने वाला है, प्रभू गुणों (का ख़ज़ाना) है और धरती के जीवों के दिल की जानने वाला है। गुरू का बख़्श़ा ज्ञान बताता है कि सिरजनहार प्रभू बेअंत है, जिस ने यह सृष्टि पैदा की है, वही इस को नाश करता है। जब उस के हुक्म में भेजा हुआ (मौत का) निमंत्रण आता है तो कोई जीव (उस निमंत्रण को) मोड़ नहीं सकता। परमात्मा आप ही (जीवों को) पैदा कर के आप ही संभाल करता है, आप ही प्रत्येक जीव के सिर पर (उस के किए कार्य अनुसार) लेख लिखता है, आप ही (जीव को सही जीवन-मार्ग की) सूझ बख़्श़ता है। मालिक-प्रभू अपहुँच है, जीवों के ज्ञान-इंद्रियों की उस तक पहुँच नहीं हो सकती। हे नानक जी! (उस के द्वार पर अरदास करो, और कहो – हे प्रभू!) तेरी सदा कायम रहने वाली सिफ़त-सलाह कर के मेरे अंदर आतमिक जीवन पैदा होता है (मुझे अपनी सिफ़त-सलाह बख़्श़) ॥१॥ हे प्रभू जी! तेरे बराबर का अन्य कोई नहीं है, (अन्य जो भी जगत में) आया है, (वह यहाँ से आखिर) चला जाएगा (तूँ ही सदा कायम रहने वाला हैं)। जिस मनुष्य की भटकना (गुरू) दूर करता है, प्रभू के हुक्म अनुसार उस के जन्म मरण के चक्र खत्म हो जाते हैं। गुरू जिस की भटकना दूर करता है, उस से उस परमात्मा की सिफ़त-सलाह करवाता है जिस के गुण बताए नहीं जा सकते। वह मनुष्य सदा-थिर प्रभू (की याद) में रहता है, सदा-थिर प्रभू (उस के हृदय में) प्रगट हो जाता है। वह मनुष्य रज़ा के मालिक-प्रभू का हुक्म पहचान लेता है (और समझ लेता है कि) प्रभू आप ही पैदा करता है और आप ही (अपने में) लीन कर लेता है। हे प्रभू! जिस मनुष्य ने तेरी सिफ़त- सलाह (की दात) गुरू से प्राप्त कर लई है, तूँ उस के मन में आ वसता हैं और अंत समय भी उस का मित्र बनता हैं। हे नानक जी! मालिक-प्रभू सदा कायम रहने वाला है, उस जैसा अन्य कोई नहीं। (उस के द्वार पर अरदास करो और कहो-) हे प्रभू! तेरे नाम से जुड़ने से (लोग परलोग में) आदर मिलता है ॥२॥ हे अदृष्ट रचनहार! तूँ सदा-थिर रहने वाला हैं और सब जीवों को पैदा करने वाला हैं। एक सिरजणहार ही (सारे जगत का) मालिक है, उस ने (जन्म और मरण) के दो रास्ते चलाएं हैं। (उसी की रज़ा अनुसार जगत में) झगड़ों की वृद्धि होती है। दोनों रास्ते प्रभू ने ही चलाएं हैं, सभी जीव उसी के हुक्म में हैं, (उसी के हुक्म अनुसार) जगत जमता और मरता रहता है। (जीव नाम को भुला कर माया के मोह का) ज़हर-रूप बोझ अपने सिर पर इक्कठा करी जाता है, (और यह नहीं समझता कि) परमात्मा के नाम के बिना अन्य कोई भी साथी-मित्र नहीं बन सकता। जीव (परमात्मा के) हुक्म अनुसार (जगत में) आता है, (पर माया के मोह में फंस कर उस) हुक्म को समझता नहीं। प्रभू आप ही जीव को अपने हुक्म अनुसार (सही रास्ते पा कर) संवारने के समर्थ है। हे नानक जी! गुरू के श़ब्द में जुड़ने से यह पहचान आती है कि जगत का मालिक सदा-थिर रहने वाला है और सब का पैदा करने वाला है ॥३॥ हे भाई! परमात्मा की भगती करने वाले मनुष्य परमात्मा की हज़ूरी में शोभा प्राप्त करते हैं, क्योंकि गुरू के श़ब्द की बरकत से वह अपने जीवन को सुंदर बना लेते हैं। वह मनुष्य आतमिक जीवन देने वाली बाणी अपनी जीभ से उचारते रहते हैं, जीव को उस बाणी से एक-रस कर लेते हैं। भगत-जन प्रभू के नाम से जीभ को रसा लेते हैं, नाम में जुड़ कर (नाम के लिए उनकी) प्यास बढ़ती है, गुरू के श़ब्द द्वारा वह प्रभू-नाम से सदके होते हैं (नाम की खातिर अन्य सभी शारीरिक सुख कुर्बान करते हैं। हे प्रभू! जब (भगत जन) तेरे मन को प्यारे लगते हैं, तब वह गुरू-पारस से स्पर्श कर के आप भी पारस हो जाते हैं (अन्यों को पवित्र जीवन देने योग्य हो जाते हैं)। जो मनुष्य आपा-भाव दूर करते हैं उनको वह आतमिक दर्जा मिल जाता है जहाँ आतमिक मौत असर नहीं कर सकती। परन्तु इस तरह कोई विरला ही गुरू के दिए ज्ञान की विचार करने वाला मनुष्य होता है। हे नानक जी! परमात्मा की भगती करने वाले मनुष्य सदा-थिर प्रभू के द्वार पर शोभा प्राप्त करते हैं, वह (अपने सारे जीवन में) सदा-थिर प्रभू के नाम का ही व्यपार करते हैं ॥४॥ जब तक मैं माया के लिए भुखा प्यासा रहता हूँ, तब तक मैं किसी भी तरह प्रभू के द्वार पर पहुँच नहीं सकता। (माया की तृष्णा दूर करने का इलाज) मैं जा कर अपने गुरू से पुछता हूँ (और उन की शिक्षा के अनुसार) मैं परमात्मा का नाम सिमरता हूँ (नाम ही तृष्णा दूर करता है)। गुरू की श़रण पड़ कर मैं सदा-थिर नाम सिमरता हूँ, सदा-थिर प्रभू (की सिफ़त-सलाह) उचारता हूँ, और सदा-थिर प्रभू के साथ सांझ पाता हूँ। मैं हर रोज़ उस प्रभू का नाम मुख से लेता हूँ जो दीनों का सहारा है जो दया का स्रोत है और जिस पर माया का असर नहीं पड़ सकता। परमात्मा ने जिस मनुष्य को अपनी हज़ूरी से ही नाम सिमरन की करने-योग्य कार्य करने का हुक्म दे दिया, वह मनुष्य अपने मन को (माया की तरफ़ से) मार कर तृष्णा के असर से बच जाता है। हे नानक जी! उस मनुष्य को प्रभू का नाम ही मीठा और अन्य सभी रसों से श्रेष्ठ लगता है, उस ने नाम सिमरन की बरकत से माया की तृष्णा (अपने अंदर से) दूर कर ली होती है ॥५॥२॥