अमृत वेले का हुक्मनामा – 08 नवंबर 2025
अंग : 506
गूजरी महला ४ घरु २ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि बिनु जीअरा रहि न सकै जिउ बालकु खीर अधारी ॥ अगम अगोचर प्रभु गुरमुखि पाईऐ अपुने सतिगुर कै बलिहारी ॥१॥ मन रे हरि कीरति तरु तारी ॥ गुरमुखि नामु अंम्रित जलु पाईऐ जिन कउ क्रिपा तुमारी ॥ रहाउ ॥ सनक सनंदन नारद मुनि सेवहि अनदिनु जपत रहहि बनवारी ॥ सरणागति प्रहलाद जन आए तिन की पैज सवारी ॥२॥ अलख निरंजनु एको वरतै एका जोति मुरारी ॥ सभि जाचिक तू एको दाता मागहि हाथ पसारी ॥३॥ भगत जना की ऊतम बाणी गावहि अकथ कथा नित निआरी ॥ सफल जनमु भइआ तिन केरा आपि तरे कुल तारी ॥४॥ मनमुख दुबिधा दुरमति बिआपे जिन अंतरि मोह गुबारी ॥ संत जना की कथा न भावै ओइ डूबे सणु परवारी ॥५॥ निंदकु निंदा करि मलु धोवै ओहु मलभखु माइआधारी ॥ संत जना की निंदा विआपे ना उरवारि न पारी ॥६॥ एहु परपंचु खेलु कीआ सभु करतै हरि करतै सभ कल धारी ॥ हरि एको सूतु वरतै जुग अंतरि सूतु खिंचै एकंकारी ॥७॥ रसनि रसनि रसि गावहि हरि गुण रसना हरि रसु धारी ॥ नानक हरि बिनु अवरु न मागउ हरि रस प्रीति पिआरी ॥८॥१॥७॥
अर्थ: अकाल पुरुष (ईश्वर) एक है, और सच्चे गुरु की कृपा से ही मिलन होता है।
मेरी दुर्बल आत्मा परमात्मा के मिलन के बिना धैर्य नहीं रख सकती,
जैसे एक छोटा बच्चा दूध के सहारे ही जी सकता है।
वह प्रभु जो अपनी शक्ति से अज्ञेय है, जिसे मनुष्य की इंद्रियाँ नहीं पा सकतीं —
वह केवल गुरु की शरण में जाकर ही मिलता है।
इसीलिए मैं अपने गुरु पर सदा बलिहार जाता हूँ ॥੧॥
हे मेरे मन! परमात्मा की स्तुति-सलाह के मार्ग से संसार-सागर पार करने का प्रयत्न कर।
आध्यात्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल गुरु की शरण में जाकर ही मिलता है।
परंतु, यह नाम-जल उन्हीं को प्राप्त होता है जिन पर परमात्मा की कृपा होती है ॥ ਰਹਾਉ ॥
सनक, सनंदन, नारद जैसे मुनि भी प्रभु की ही सेवा-भक्ति करते रहे हैं,
सदा हरि-नाम का जाप करते रहे हैं।
प्रह्लाद जैसे भक्त जो भी प्रभु की शरण में आए,
परमात्मा ने उनकी लाज सदा रखी ॥੨॥
पूरा संसार उसी अदृश्य, निरलेप परमात्मा से व्याप्त है,
संसार में उसी का प्रकाश (नूर) फैल रहा है।
हे प्रभु! तू ही सबको देने वाला है,
सभी जीव तेरे दर के भिखारी हैं, हाथ फैलाकर तुझसे ही माँग रहे हैं ॥੩॥
परमात्मा के भक्तों के वचन अमूल्य हो जाते हैं,
वे सदैव उस प्रभु की अद्भुत स्तुति के गीत गाते हैं,
जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।
उसकी स्तुति-सलाह के प्रभाव से उनका मनुष्य जन्म सफल हो जाता है,
वे स्वयं पार हो जाते हैं और अपनी कुलों को भी पार लगा देते हैं ॥੪॥
जो मनुष्य अपने ही मन के पीछे चलते हैं,
वे द्विविधा और बुरी बुद्धि के प्रभाव में फँसे रहते हैं,
क्योंकि उनके हृदय में मोह का अंधकार छाया रहता है।
ऐसे लोगों को संतों की वाणी (परमात्मा की स्तुति) नहीं सुहाती,
इसलिए वे अपने परिवार सहित विकारों के समुद्र में डूब जाते हैं ॥੫॥
जो मनुष्य दूसरों की निंदा करते हैं,
वे दूसरों की बुराइयों की मैल तो धो देते हैं,
परंतु स्वयं उस पराई मैल को खाने के आदी हो जाते हैं।
जो लोग संतों की निंदा में फँसे रहते हैं,
वे न इस पार आ सकते हैं, न उस पार जा सकते हैं ॥੬॥
परंतु, जीवों का भी क्या दोष?
यह पूरा संसार-खेल स्वयं करतार ने रचा है,
और उसी ने इसमें अपनी शक्ति टिकाई है।
सारे जगत में उसी की सत्ता का धागा फैला हुआ है,
जब वह इसे खींच लेता है, तब यह खेल समाप्त हो जाता है
और केवल वही परमात्मा शेष रह जाता है ॥੭॥
जो मनुष्य संसार-सागर से सही सलामत पार होना चाहते हैं,
वे सदा प्रेमपूर्वक प्रभु के गुण गाते रहते हैं,
उनकी जिह्वा प्रभु-नाम के रस का आनंद लेती रहती है।
हे नानक! मैं परमात्मा के नाम के बिना कुछ नहीं माँगता,
बस मुझे प्रभु-नाम के अमृत रस की प्रेमपूर्ण लिप्सा बनी रहे ॥੮॥੧॥੭॥

