संधिआ वेले का हुक्मनामा – 05 नवंबर 2025
अंग : 622
सोरठि महला ५ ॥ सूख सहज आनंदा ॥ प्रभु मिलिओ मनि भावंदा ॥ पूरै गुरि किरपा धारी ॥ ता गति भई हमारी ॥१॥ हरि की प्रेम भगति मनु लीना ॥ नित बाजे अनहत बीना ॥ रहाउ ॥ हरि चरण की ओट सताणी ॥ सभ चूकी काणि लोकाणी ॥ जगजीवनु दाता पाइआ ॥ हरि रसकि रसकि गुण गाइआ ॥२॥ प्रभ काटिआ जम का फासा ॥ मन पूरन होई आसा ॥ जह पेखा तह सोई ॥ हरि प्रभ बिनु अवरु न कोई ॥३॥ करि किरपा प्रभि राखे ॥ सभि जनम जनम दुख लाथे ॥ निरभउ नामु धिआइआ ॥ अटल सुखु नानक पाइआ ॥४॥५॥५५॥
अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन परमात्मा की प्यार भरी भक्ति में टिका रहता है, उसके अंदर सदा एक रस (आत्मिक आनंद की, मानो) वीणा बजती रहती है। रहाउ। (हे भाई! जब से) पूरे गुरू ने (मेरे पर) मेहर की है तब से मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बन गई है, (मुझे) मन में प्यारा लगने वाला परमात्मा मिल गया है, मेरे अंदर आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं।1। हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभू-चरनों का बलवान आसरा ले लिया, दुनिया के लोगों वाली उसकी सारी मुथाजी खत्म हो गई। उसे जगत का सहारा दातार प्रभू मिल जाता है। वह सदा बड़े प्रेम से परमात्मा के गीत गाता रहता है।2। हे भाई! मेरी भी प्रभू ने जम की फांसी काट दी है, मेरे मन की (ये चिरों की) आशा पूरीहो गई है। अब मैं जिधर देखता हूँ, मुझे उस परमात्मा के बिना कोई और दिखाई नहीं देता।3। हे नानक! प्रभू ने कृपा करके जिनकी रक्षा की, उनके अनेकों जन्मों के सारे दुख दूर हो गए। जिन्होंने निर्भय प्रभू का नाम सिमरा, उन्होंने वह आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया जो कभी दूर नहीं होता।4।5।55।

