संधिआ ​​वेले का हुक्मनामा – 22 जुलाई 2025

अंग : 707
सलोक ॥ बसंति स्वरग लोकह जितते प्रिथवी नव खंडणह ॥ बिसरंत हरि गोपालह नानक ते प्राणी उदिआन भरमणह ॥१॥ कउतक कोड तमासिआ चिति न आवसु नाउ ॥ नानक कोड़ी नरक बराबरे उजड़ु सोई थाउ ॥२॥ पउड़ी ॥ महा भइआन उदिआन नगर करि मानिआ ॥ झूठ समग्री पेखि सचु करि जानिआ ॥ काम क्रोधि अहंकारि फिरहि देवानिआ ॥ सिरि लगा जम डंडु ता पछुतानिआ ॥ बिनु पूरे गुरदेव फिरै सैतानिआ ॥९॥
अर्थ: प्राणी चाहे स्वर्ग लोक में रहता हो, चाहे उसने पृथ्वी के नौ खण्डों पर भी विजय प्राप्त कर ली हो, परन्तु यदि वह पृथ्वीपालक परमात्मा को विस्मृत कर देता है तो हे नानक जी! वह भयानक वन में ही भटक रहा है ॥१॥ हे नानक जी! जिन्हें कौतुक, आनंद एवं खेल-तमाशों के कारण परमात्मा का नाम याद नहीं आता, वे मनुष्य नरक में रहने वाले कुष्ठी समान हैं और उनका निवास स्थान भी उजाड़ समान है ॥२॥ यह जगत एक महाभयानक वन के समान है परन्तु मूर्ख जीव ने इसे सुन्दर नगर समझ लिया है और झूठी साम्रगी को देखकर उसने सत्य समझ लिया है। वह काम, क्रोध एवं अहंकार में मग्न होकर पागलों की तरह घूम रहा है। लेकिन जब मृत्यु की चोट इसके सिर पर आकर लगी तो वह पश्चाताप कर रहा है। पूर्ण गुरुदेव के बिना जीव एक शैतान की भांति घूमता रहता है ॥९॥


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